इन्द्रायणी साहित्य समेला में शिक्षकों की उपस्थिति उल्लेखनीय
Pune News पिंपरी(व्हीएसआरएस न्यूज) राष्ट्र निर्माण और साहित्यिक संस्कृति के संरक्षण में शिक्षकों का योगदान अमूल्य है। साहित्य सामाजिक विचारों के साथ सुख और मनोरंजन का स्रोत बने और गरीबों की पीड़ा को व्यक्त करे। शिक्षक सेवानिवृत्ति तक सेवा में बने रहते हैं, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद कुछ राष्ट्र निर्माण के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे इस देश की पारंपरिक परंपराओं और संस्कृति को साधने का काम करते हैं। अब केंद्र सरकार ने शिक्षा के संबंध में एक ऑनलाइन प्रारूप की घोषणा की है और सेवानिवृत्त शिक्षकों सहित सभी शिक्षकों को इसका पालन करना चाहिए। इसमें निर्धनों की शिक्षा को साधना समझना चाहिए। पूर्व गृहमंत्री दिलीप वलसे पाटिल ने कहा कि हम जैसे विधायकों को सदन में अपना पक्ष रखने में मदद मिलेगी।
दिलीप वलसे पाटिल ने इंद्रायणी साहित्य परिषद एवं मोशी ग्रामस्थ द्वारा आयोजित प्रथम इंद्रायणी साहित्य सम्मेलन में ”राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों का योगदान” विषय पर संगोष्ठी के दौरान कही। मोशी में यशवंतराव चव्हाण साहित्य नगरी, इस अवसर पर रवींद्रनाथ टैगोर, पूर्व विधायक विलास लांडे,सभा के अध्यक्ष,श्रमिक नेता एवं पूर्व नगरसेवक अरुण बोरहाड़े, संगोष्ठी अध्यक्ष पदमश्री गिरीश प्रभुणे,स्वागत अध्यक्ष संतोष बरणे, प्रो. एकनाथ बर्से, गोष्ठी में भाग लेने वाले शिक्षकगण,विश्वकर्मा प्रकाशन के विशाल सोनी,कार्यकारी मंडल के अध्यक्ष संदीप तपकीर,इन्द्रायणी साहित्य परिषद के उपाध्यक्ष डॉ.सीमा कलभोर,विकास कांड,सचिव रामभाऊ सासवड़े, संयुक्त सचिव डॉ.मुलानी, कोषाध्यक्ष अलंकार हिंगे,सदस्य दादाभाऊ गावड़े,श्रीहरि तपकीर,सुनील जाधव आदि उपस्थित थे।
नई तकनीक के युग में छात्रों को सही दिशा देना शिक्षकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। नई तकनीक सिखानी है लेकिन हमारी संस्कृति और अध्यात्म उन्हें समझाने वाला होना चाहिए। अब शिक्षकों की जितनी जिम्मेदारी माता-पिता की है। तभी हमारे पास एक सभ्य और जिम्मेदार पीढ़ी होगी। साथ ही शिक्षा के साथ-साथ छात्रों को यह भी सिखाया जाना चाहिए कि 16 साल की उम्र में महिलाओं का सम्मान कैसे किया जाता है। स्वच्छता,पर्यावरण,गरीबों की मदद। प्रतियोगिता के लिए शिक्षा के बजाय ज्ञान के लिए शिक्षा दी जानी चाहिए। एक छात्र एक बड़े पैकेज को देखकर बनता है। इस संगोष्ठी में,शिक्षकों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए कि शिक्षकों को इसके बजाय मनुष्य बनाने के उद्देश्य से काम करना चाहिए।
संगोष्ठी के अध्यक्ष गिरीश प्रभुणे ने कहा कि भारत में आज भी हजारों भाषाएं विद्यमान हैं। वे बोली जाती हैं। अंग्रेजी इंग्लैंड की मातृभाषा है, अमेरिका की भाषा है। उन चंद करोड़ों की अंग्रेजी भाषा को भारत के 500 करोड़ से ज्यादा पर थोपा जा रहा है। इसलिए भारत की मूल भाषाएं मर रही हैं। पिछले 75 वर्षों की आधुनिक शिक्षा ने वास्तव में हमें क्या दिया है? अब इसके बारे में सोचने का समय आ गया है। साहित्य, विज्ञान में हमें थोड़े ही नोबेल मिल सके। किसानों की आत्महत्या अभी रुकी नहीं है। गिरीश प्रभुणे ने कहा कि शिक्षकों को सभी कार्यों की जिम्मेदारी लेनी होगी तभी एक सभ्य और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। संचालन एकनाथ बोरसे ने किया। अध्यक्ष संतोष बारणे ने स्वागत किया। धन्यवाद ज्ञापन कार्यकारी अध्यक्ष सोपान खुदे ने किया।