जिस तरह कैन्हैया के द्धार पर सुदामा गए थे ठीक उसी तरह पिछले 19 दिनों से अन्नदाता अपने दाता के द्धार पर डेरा डाले हुए है। लेकिन दाता का कंठ अपने अन्नादाता के लिए अभी तक नहीं खुला। जिसके लिए अन्नादाता भगवान हुआ करता था आज उस भगवान को उनके ही लोग आतंकवादी कहते है,किरायेदार कहते है। अगर कोई अंधभक्त कहे तो बात समझ में आती है अगर मंत्री स्तर के लोग किसानों को आतंकवादी बोले तो लोकतंत्र के शिष्टाचार से हठ की बातें है। ऐसी बयानबाजी से माहौल बिगडता है खराब होता है। विश्वास पर जो संवाद चल रहा है उसको कमजोर बनाता है। भक्त अपने भगवान की बेइज्जती मौनव्रत होकर आखिर क्यों देख रहा है? यूपी के मुख्यमंत्री योगी का बयान आया कि जो आंदोलन को समर्थन करेगा उसका राम नाम सत्य हो जाएगा। मतलब अब देश लोकतंत्र से नहीं ठोकशाही से चलेगा?
सवाल है कि अगर दिल्ली बॉर्डर पर बैठे आंदोलन आतंकवादी है तो ये आतंकवादी भारतीय सीमा के अंदर घुसपैठ कैसे कर पाए? देश की खुफिया एजेंसी क्या कर रही थी? खुलेआम आंदोलन कर रहे ऐसे आतंकवादियों को सरकार अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं की? देश की खातिर सीमा पर जान जोखिम में डालकर सेवानिवृत्त हुए हजारों फौजी आंदोलन में शामिल है, क्या ये लोग भी सरकार की नजरों में आतंकवादी है? ऐसे बयानबाजी से सरकार पर बैठे लोग खुद देश का माहौल खराब कर रहे है। देश की अखंडता के खतरे में डालने का काम कर रहे है। आंदोलित किसानों के बारे में यह भी कहा गया कि शूट बूट,जींस पैंट वाले किसान नहीं हो सकते। इतना बढिया पकवान भोजन की व्यवस्था कौन कर रहा है? ऐसे आरोप लगाने वाले शायद भूल गए कि जो किसान पूरे देश का पेट भर सकता हो अपने लिए अच्छा भोजन का इंतजाम,अच्छा कपडा नहीं पहन सकता?देश की जनता के सामने आंदोलित किसानों की छवि को खराब करने की स्टंटबाजी ही कह सकते है। आरएसएस समर्थित भारतीय किसान संघ जो आंदोलन से दूर रहा अब उसका भी ह्दय परिवर्तन हुआ है। संघ भी एमएसपी की गारंटी सरकार से मांगने लगा है। हां! आंदोलन स्थल पर खालिस्तान का झंडा बैनर और खालिस्तान झिंदाबार के नारे और अलग खालिस्तान राज्य की मांग भी गलत है। ये माहौल को विषैला बनाने का काम कर रहा है। किसान संगठनों को सियासी पार्टियों की तरह ऐसे खालिस्तान संगठनों से बचना चाहिए। यही तमाम कारण है कि कई दौर संवाद के बाद भी अन्नदाता से दाता दूर है और दाता से अन्नदाता नाराज है।
क्या किसान आन्दोलन ने पूरे देश में एक नई अलग जगा दी है? क्या किसानों की मांगें वाकई में न्यायोचित नहीं है? यदि ये कानून किसानों के हित में है, तो क्यों कोई भी बड़ा किसान संगठन इसके पक्ष में क्यों नहीं है? क्या किसानों की तैयारी से केन्द्र सरकार बेखबर थी और उससे भी बड़ा यह कि क्या जिन तीन कृषि कानूनों का अब पुरजोर विरोध हो रहा है, उनको बनाते समय केन्द्र सरकार ने जिनके लिए बनाया जा रहा है, उनकी राय लेना भी क्यों नहीं जरूरी समझा? अब वजह कुछ भी हो, लेकिन किसानों की एकता ने देश में इस आन्दोलन को एक नया मंच और नई चेतना जरूर दे दी है। स्थिति कुल मिलाकर कुछ यूं होती जा रही है कि पांच दौर की वार्ता विफल होने के बाद आगे क्या होगा किसी को पता नहीं है।
न ही किसान और न ही सरकार झुकने को तैयार है। हां अगर कुछ दिख रहा है तो वह यह कि किसानों के हौसले बुलन्द हैं और तैयारी पुरजोर और इतनी कि उनके द्वारा दी गई चेतावनी भी सच सी लगने लगीं। जिस तरह सड़कों पर ट्रैक्टर ट्रॉलियों और बड़े-बड़े वाहनों को अस्थायी आश्रय केन्द्रों में तब्दील कर पूरी तरह से व्यवस्थित ढ़ंग से रोज के भोजन,पानी का इंतजाम हो रहा है,उसने कम से कम भरे कोविड काल में किसानों की एकता पर मुहर लगा दी है। सड़कों को आशियाना में तब्दील कर चुके किसानों की घोषणा पर भी अब आश्चर्य नहीं होता कि 6 महीने के राशन-पानी के इंतजाम के साथ आए हैं। एकता का परिणाम देश ने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी कई मौकों पर देखा है।
भारत में खाद्य संकट इतिहास का हिस्सा बन गया है। लेकिन 60 के दशक के पहले ऐसा नहीं था। पिछले 14 दिनों से दिल्ली में आंदोलन कर रहे पंजाब-हरियाणा के किसानों का कहना है कि भारत को खाद्य संकट से बाहर निकालने में उनका सबसे बड़ा योगदान है। इस बात में सच्चाई भी है। नए कृषि क़ानून के आने के बाद से किसानों को लग रहा है कि अब प्राइवेट प्लेयर बाज़ार में आ जाएँगे और मंडी व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी। ऐसे में उनकी एमएसपी की सुनिश्चित आय ख़त्म हो जाएगी। फसलों की क़ीमतें बाज़ार के हिसाब से ही तय होनी चाहिए ना कि सरकार द्वारा नियंत्रित की जानी चाहिए। किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फसल बेचने की आज़ादी होगी। किसानों को डर सता रहा है कि इससे मंडियाँ बंद हो जाएँगी। जबकि सरकार का कहना है कि मंडियां बंद नहीं होगी। अगर व्यापारी एक जुट हो कर कहें कि वो एमएसपी पर फसल नहीं ख़रीद सकते तो सरकार क्या करेगी? ऐसे में सरकार पर इन फसलों की ख़रीद का दबाव बढ़ेगा। अब चूँकि ये क़ानून है तो सरकार को ये 23 फसलों की ख़रीद करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। एमएसपी को ख़त्म कर दिया जाए। उनके मुताबिक़, एमएसपी के ऊपर सरकार जो 40 फ़ीसदी ख़र्च कर रही है वो पैसा किसानों के पास तो जा नहीं रहा। इस पैसे को सरकार को सीधे किसानों तक पहुँचाने का प्रबंध करना चाहिए।
किसान बिल किसानों की आथिक हालत सुधारने के उद्देश्य से बनाया गया था। अगर किसान ही बिल का विरोध कर रहे है तो उनको बिल के प्रति विश्वास नहीं। फिर सरकार बिल को वापस क्यों नहीं ले लेती? और किसान संगठनों के साथ मिल बैठकर एक नया बिल तैयार करे जो सर्वमान्य हो। लेकिन समस्या यह है कि ना तो किसान पीछे हटना चाहते है और न सरकार झुकना चाहती है। कई दौर के संवाद का सेतू भी टूट चुका है। सरकार जनता के हितों के लिए होती है अगर जनता जिस चीज का विरोध करे उस पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए ना कि हठशाही,ठोकशाही का रुख अख्तियार रखना चाहिए। आंदोलनकारी किसान है आतंकवादी नहीं,देश का अन्नदाता है,125 करोड लोगों का पेट अपना पसीना बहाकर पालता है। उनको किराए का टटू कहना न्यायसंगत नहीं। सरकार सियासी झरोखों से नहीं कृष्ण-सुदामा के भक्तिभाव से देखना चाहिए। यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत जय जवान-जय किसान का समर्थक था है और रहेगा। ऐसे में दाता बनाम अन्नदाता की जंग,सुलह में बदलनी चाहिए ताकि एक नई क्रान्ति की अलख जगे और हो हरित क्रान्ति।