पटना(व्हीएसआरएस न्यूज) बिहार में चुनाव की तारीखों की घोषणा अभी भले नहीं हुई है लेकिन सियासी सरगर्मी अपने उफान पर है। कहीं सीटों को लेकर दावेदारी है तो कहीं गठबंधन का पेंच फंसा है। कोई अपनी जीती हुई सीट छोड़ने को तैयार नहीं है तो कोई मुश्किल सीटों पर लड़ने से बच रहा है। जिसका जहां वोट बैंक है, उसके आधार पर अपनी जोर आजमाइश कर रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भले कह रहे हैं कि एनडीए में सबकुछ ठीक है लेकिन लोजपा ने जिस तरह का रूख अख्तियार किया है, खासकर के जदयू के खिलाफ उससे लगता है कि कहीं न कहीं सीटों को लेकर पेंच जरूर है। आखिर ऐसा क्यों हैं इसे समझने की कोशिश करते हैं…
दरअसल 2015 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में थोड़ा अलग और दिलचस्प था। इस चुनाव में वर्षों के यार जुदा हो गए थे और पुराने धुर विरोधी एक हो गए थे। 20 साल बाद लालू और नीतीश एक साथ मिलकर महा गठबंधन(जिसमें कांग्रेस भी शामिल थी) के रूप में चुनाव लड़ रहे थे जबकि दूसरी ओर भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम पार्टी मिलकर उनका मुकाबला कर रही थीं। चुनाव परिणाम घोषित हुए तो महा-गठबंधन को बहुमत मिला, सरकार भी बनी लेकिन दोनों का साथ ज्यादा दिन नहीं चल सका और जुलाई 2017 में नीतीश महा-गठबंधन से अलग होकर फिर से एनडीए में आ गए। इस बार के चुनाव में जदयू, भाजपा, लोजपा और हम पार्टी साथ हैं तो वहीं रालोसपा एनडीए से अलग होकर महा-गठबंधन का हिस्सा हो गई है।
52 सीटों पर जदयू और भाजपा में सीधी टक्कर थी
2015 के पहले जदयू बड़े भाई की भूमिका में होती थी लेकिन इस बार भाजपा छोटे भाई की भूमिका में नहीं रहना चाहती है। राजनीतिक गलियारों में यह कयास लगाए जा रहे हैं कि दोनों दल बराबर- बराबर सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं। अगर इस पर बात बन भी जाए तो मुश्किल यह है कि लोजपा और दूसरी सहयोगी पार्टियों को कितनी सीटें दी जाए।