भाजपा का कैडर न थकता है न हारता है निरंतर चलता रहता है। एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव की तैयारी में लग जाता है। राजनीति में कोई भजन करने तो आता नहीं। लेकिन चुनाव जीतने के मदहोश में अगर देश के सामने खडे ज्वलंत समस्याओं को अनदेखी किया जाए या दबावे की कोशिश की जाए तो देश के साथ न्यायसंगत नहीं होगा। कैसे बंगाल राजनीति में एक मोटी लकीर खींचकर किसान आंदोलन दबाने की तैयारी हो रही है। किसानों के घर भोजन कर किसान आंदोलन डकारे रहे अमित शाह। सियासत केवल तत्काल को देखने लगे,नजर केवल गद्दी पर रहे तो उस देश की सांस्कृति मूल्यों को भूलाकर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को भूल जाए तो देश के साथ क्या हो सकता है? शायद वर्तमान में देश उस दिशा की ओर बढ चला है।
एक तरफ पंजाब है तो दूसरी तरफ बंगाल विभाजन की मोटी लकीर दोनों राज्यों से होकर गुजरती है। आजादी के बाद मजहब के नाम पर देश को बांटा गया था। संयोग से देश के गृहमंत्री अमित शाह दो दिवसीय बंगाल के दौरे पर थे। उन्होंने बार बार सोनार बांगला का जिक्र किया। विभाजन के समय उस जमाने के मशहूर कवि रविंद्रनाथ टाइगोर ने 1906 में सोनार बांगला गीत के माध्यम से देश को जोडने का मार्मिक संदेश दिया था। मेरा सोने जैसा बंगाल,मैं तुमसे प्यार करता हूँ..गीत के बोल है। यह गीत तब लिखा गया जब अंग्रेजों ने बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया था। वर्तमान में अमार सोनार बांगला मौजूदा सियासत केंद्र के सत्ता के गलियारों से निकली है और बंगाल में सत्ता हथियाने का भरसक प्रयास हो रहा है। बंगाल लाल रक्त से हमेशा रक्रंजित रहा है। चाहे विभाजन का वक्त रहा हो या फिर लेफ्ट,टीएमसी,कांग्रेस का वक्त रहा हो। भाजपा के गृहमंत्री अपने दौरे के हर कार्यक्रम में भाजपा कैडरों की हत्या का जिक्र किया। लेकिन टीएमसी, लेफ्ट के कैडरों का जिक्र कौन करेगा? यह एक सवाल है। देश के गृहमंत्री अमित शाह हत्याओं का जब जिक्र कर रहे थे तो देश का एक बुद्धिजीवी वर्ग ताजुब कर रहा था कि जिसके हाथ में देश की सत्ता, पुलिसबल हो वो जिक्र करे तो भरोसा किस पर करें। लेफ्ट के 25 साल शासन भी रक्तरंजित रहा। जमींनदारों से जमींन छीनकर अपने कैडरों में बांटने का चलन था। पढे लिखे बंगाल छोडकर चले गए लेकिन जो कम पढा लिखा बेरोजगार था वह पार्टी का झंडा उठाकर उसमें अपना रोजगार ढूंढने लगा। टीएमसी की ममता बनर्जी ने लेफ्ट के गढ को उखाड फेंकी लेकिन बंगाल की धरती फिर भी रक्तरंजित रही। बदला कुछ नहीं। मौजूदा हालात में बंगाल कहां खडा है सियासतदानों और वहां की जनता को एक बार फिर विचार करने का वक्त आ गया है। ममता हो चाहे भाजपा दोनों बंगाल की सत्ता पाने के लिए ऐढी चोटी का जोर लगा रहे है। लेफ्ट की मुश्किल है कि वो कहां खडा रहे। ममता ने लेफ्ट के मजदूर,किसान पर कब्जा कर लिया तो भाजपा ने कांग्रेस के कॉरपोरेट पर सिक्का जमा लिया। अब हिंसा एक रेड कॉरपोरेट की तरह नजर आने लगी है। बंगाल का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जमींन वही है केवल उसे खून से रक्रंजित करने वाले कैडर,चेहरे बदले है। कैडर का मतलब चुनाव हो गया और चुनाव का मतलब सत्ता है। क्रांतिकारी नारे माँ माटी माणूस में समा गए और अब जयश्री राम,काली में समा रहे हैं।
बंगाल का आखिरी किला ढहाने के लिए भाजपा का कैडर जी जान से लगा है। बडे चेहरों को मैदान में उतारा गया है। केंद्र से मंत्रियों की फौज आए दिन भेजी जा रही है। कई नेता अब चुनाव संपन्न होने तक बंगाल में ही डेरा डाले रहेंगे। इतना ही नहीं आरएसएस के कैडर भी दरवाजे दरवाजे दस्तक दे रहा है। बंगाल इन दिनों भाजपा का सांप्रदायिक अथवा हिंदुत्व राजनीति के प्रयोग का गढ़ बन रहा है। जिसे ढहा दिया जाए तो आने वाले वक्त में केंद्र जो सोचती है वही सत्ता वही कानून होगा। यूपी में भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। बिहार में भी ऐसा ही कुछ हुआ। बंगाल में 27% मुुस्लिम मतदाता है। अधिकांश सीटों पर 20% के आसपास संख्या जो निर्णायक भूमिका में नजर आ रहे है। लेकिन 27% मुस्लिम खेल बिगाड सकते है। लेकिन औवेसी,ममता का खेल बिगाड सकते है जैसा बिहार में तेजस्वी का खेल बिगाडा। फेडरेशन सिस्टम भी चकनाचूर हो रहा है। बंगाल में तीन आईएएस अधिकारियों को इसलिए दिल्ली अटैच किया गया कि वो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा के काफिले में हुए हमले को बचाने में नाकाम रहे। भोलानाथ पांडेय,प्रविण त्रिपाठी,राजीव मिश्रा को दिल्ली बुलाकर अपने तरीके से दंड दिया जाएगा। लेकिन संविधान यह कहता है कि किसी भी राज्य से आयएएस अधिकारियों को बुलाने से पहले राज्य सरकार से चर्चा,अनुमति,सहमति, सिफारिश लेनी होती है। बंगाल मसले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। यही टकराव का मुद्दा है। ममता अपने तीनों अधिकारियों को छोडना नहीं चाहती। न्यायपालिका और कार्यपालिका जब सियासतदानों के हाथों खेलने लगे तो टकराव का जन्म होना स्वभाविक है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अरविंदर सिंह किसान आंदोलन मुद्दे पर राष्ट्रपति से मिलना चाहते थे मिलने का वक्त नहीं मिला तो राष्ट्रपति भवन के सामने अनशन पर बैठ गए। संविधान पर लोगों का भरोसा क्यों डगमगा रहा है? देश के 6 राज्य सीबीआई को प्रवेश पर नो एन्ट्री का बोर्ड लगा रखा है। केंद्र राज्यों को जीएसटी का पैसा नहीं दे रही।
बंगाल के किसानों की हालत देश के अन्य राज्यों के किसानों की तुलना में नीचे से दूसरे स्थान पर आता है। दिल्ली में किसान लगभग एक महिने से बॉडर्र पर 3 डिग्री के तापमान में हाडतोड ठंड में महिलाओं,बच्चों के साथ खुले आसमान तले आंदोलन कर रहा है। लेकिन अन्नदाता के लिए दाता का दिल अभी तक नहीं पसीजा। एक कानून जो हजारों,लाखों जिंदगानियों से बढकर तो नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री अपनी रईसी कोठी से निकलकर गुरुद्धारा में मत्था टेकने आतेे है लेकिन दो कदम आगे बढाकर किसान आंदोलन स्थल तक किसानों के बीच पहुंच जाते तो शायद कल ही आंदोलन का आखिरी दिन साबित होता। मगर ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि अब सबका ध्यान बंगाल में टिका है। सुप्रिम कोर्ट का निर्णय भी सुखद समाचार लेकर नहीं आया। आंदोलन लंबा खिंचता नजर आ रहा है। कुछ और किसानों को शहीद होने के लिए मानसिक,शारीरिक रुप से तैयार रहना होगा। देश की स्थिति की ओर से सबने आंखें मूंद ली है। क्योंकि हर कोई तत्काल जीना चाहता है,तत्काल सुविधा चाहता है,तत्काल गद्दी चाहता है। लोकतंत्र का मतलब अब वोट नहीं लोकतंत्र को हडपने का चलन चल पडा है।