दिल्ली । व्हीएसआरएस संवाददाता: हिंदू धर्म में ब्रह्मा के सातवें पुत्र के रूप में पूज्य हैं भगवान विश्वकर्मा। उन्हें सृष्टि के निर्माण की रूपरेखा व आकार देने वाले शिल्पकार, ब्रह्मांड के प्रथम अभियंता व यंत्रों के देवता माना जाता है। धर्मशास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा को इंद्रपुरी, भगवान कृष्ण की द्वारिकानगरी, सुदामापुरी, इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, स्वर्गलोक, लंकानगरी, पुष्पक विमान, शिव के त्रिशूल, यमराज के कालदंड और विष्णुचक्र सहित अनेक देवताओं के राजमहल व राजधानियों का निर्माण का कार्य सौंपा गया था, जिसे अद्भुत कुशलता से विश्वकर्मा ने संपन्न किया। विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं के वर्धकी (काष्ठशिल्पी) होने का वर्णन मिलता है। एक स्थान पर उल्लेख मिलता है कि जल पर सहज रूप से चल सकने की खड़ाऊं बनाने का सामथ्र्य उनमें मौजूद था।
विश्वकर्मा जी की उत्पत्ति
उनकी उत्पत्ति के विषय में एक प्रसंग मिलता है कि सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम भगवान विष्णु क्षीरसागर में जब शेष-शैया पर प्रकट हुए तो उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा दृष्टिगोचर हुए। ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म से पुत्र वास्तुदेव उत्पन्न हुए। उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पिता की ही भांति पुत्र विश्वकर्मा वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य, आदि अभियंता आदि विशेषणों से विभूषित हैं।
विश्वकर्मा जी के पांच अवतार
धर्मशास्त्रों में विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों या अवतारों का भी वर्णन मिलता है, जैसे, पहला; विराट विश्वकर्मा, इन्हें सृष्टि को रूप-आकार देने वाला कहा गया है। दूसरा; धर्मवंशी विश्वकर्मा, जो महान शिल्पज्ञ, विज्ञान-विधाता प्रभात के पुत्र हैं। तीसरे; अंगिरावंशी विश्वकर्मा, विज्ञान-व्याख्याता वसु के पुत्र। चौथे, सुधन्वा विश्वकर्मा, महान शिल्पाचार्य ऋषि अथवी के पुत्र और पांचवें भृगुवंशी विश्वकर्मा, उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानी शुक्राचार्य के पौत्र के रूप में उल्लिखित हैं।
विश्वकर्मा जी का स्वरूप
भगवान विश्वकर्मा अनेक रूपों यथा- दो बाहु, चार बाहु, दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख तथा पंचमुख में महिमामंडित हैं।
विश्वकर्मा जी की वंश बेल
उनके पांच पुत्र क्रमश: मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ थे। ये समस्त पुत्र शिल्पशास्त्र में निष्णात् थे। मनु विश्वकर्मा सानग गोत्रीय हैं। ये लौह-कर्म के अधिष्ठाता थे, तो ऋषि मय मूलत: सनातन गोत्र के दूसरे पुत्र थे, जो कुशल काष्ठ शिल्पी थे।
अहभन गोत्रीय ऋषि त्वष्टा के वंशज कांसा व तांबा धातु के आविष्कारक तीसरे पुत्र थे। चौथे पुत्र प्रयत्न ऋषि शिल्पी हैं, जो प्रयत्न गोत्र से संबंधित हैं। इनके वंशज मूर्तिकार हैं। दैवज्ञ ऋषि, जो सुवर्ण गोत्रीय थे, के वंशज सोने-चांदी का काम करने वाले स्वर्णकार कहलाए। वैदिक देवता विश्वकर्मा ही जगत् के सूत्रधार कहलाते हैं- दैवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित ध्यायते सर्व सत्वै। विश्वकर्माप्रकाश , जिसे वास्तुतंत्र भी कहा जाता है, में मानव एवं देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है।
अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों के विश्वकर्मा द्वारा दिये उत्तर लगभग साढ़े सात हजार श्लोकों का अनूठा संकलन है। दुर्भाग्यवश अब मात्र 239 सूत्र ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ से भी पता चलता है कि विश्वकर्मा के तीन अन्य पुत्र क्रमश: जय, विजय और सिद्धार्थ भी थे, जो उच्चकोटि के वास्तुविद थे।
भाद्रपक्ष की अंतिम तिथि को विश्वकर्मा पूजा का विधान है। इस दिन सभी बुनकर, शिल्पकार, कल-कारखानों, औद्योगिक घरानों में विधिवत पूजा होती है। सभी प्रकार के औजारों के पूजन के उपरांत सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।