बिहार चुनाव में एनडीए सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। भाजपा और नीतिश पर बिहार की जनता का विश्वास टूट रहा है। नीतिश का बार बार राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता के लिए पाला बदलना बिहारी मतदाताओं को नागवार गुजरा है। यही कारण है कि इस बार बिहार के चुनाव में परिवर्तन की बयार बह रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे तो बिहार बाढ के लिए 1 करोड का राहत पैकेज भेजा जिसको नीतिश कुमार ने वापस कर दिया था। कई मौकों पर मोदी-नीतिश में ठनी। बिहार समेत देश की जनता नीतिश को प्रधानमंत्री के रुप में देखने लगी थी। लेकिन नीतिश ने सत्ता मोह में जिस प्रकार पैंतरा बदला और गिरगिट जैसे रंग दिखाया उससे उनकी साख तेजी से गिरी और जनता नीतिश के साथ साथ भाजपा पर विश्वास करना कम करने लगी। इस बार जनता के हर हिस्से में उन्हें लेकर शंका है कि चुनाव के बाद वह किसी भी करवट बैठ सकते हैं। नीतीश कुमार के काम और सुशासन के तमाम दावों और वादों पर यह विश्वास का संकट भारी पड़ता नजर आ रहा है। विश्वास का यह संकट भाजपा के सामने भी है क्योंकि पांच साल पहले के चुनावों में नीतीश कुमार को जमकर कोसने वाली भाजपा और उसके नेता अब उनके लिए ही वोट मांग रहे हैं। ऐसे में बिहार के मतदाताओं का सवाल है कि किसे सही मानें… पांच साल पहले नीतीश कुमार और भाजपा नेताओं ने एक-दूसरे के बारे में जो कहा था उसे या अब जो कह रहे हैं। दोनों के एक-दूसरे के बारे में कहे गए पुराने बयान लोगों के बीच अब भी चर्चा में हैं।
2005 में बहुमत की सरकार के मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने बिहार की सूरत बदलनी शुरू की और उन्होंने राजद के 15 साल के राज में बुरी तरह से बर्बाद हुए बिहार को पटरी पर लाने के लिए वह सब किया जिसका उन्होंने चुनावों में वादा किया था। सबसे पहले कानून व्यवस्था को सुधारने के लिए उनकी सरकार ने बिहार के अपराधियों, माफिया सरगनाओं और उनके राजनीतिक सरपरस्तों पर नकेल कसी। इसके नतीजे भी सामने आने लगे और जिस पटना में रात आठ बजे के बाद लोग घरों निकलने में डरते थे, उस पटना सहित पूरे बिहार में पूरी रात लोग निर्भय होकर बाहर निकलने लगे। एक शहर से दूसरे शहर जाने लगे। इसी दौर में नीतीश ने अपना जनाधार तैयार करने के लिए कई बड़े फैसले लिए।
अपने दूसरे पूर्ण कार्यकाल में नीतीश कुमार ने बिहार के मूलभूत ढांचे के विकास पर ध्यान देना शुरू किया। बिहार की सड़कों का उन्होंने कायाकल्प किया और जिन टूटी-फूटी सड़कों पर थोड़ी दूरी भी तय करने में घंटों लगते थे, उन्हें चौड़ा करके इतना अच्छा बनाया गया कि लंबी-लंबी दूरियों भी कुछ घंटों में तय होने लगीं। बिजली आपूर्ति को लेकर बिहार में कहावत थी कि यहां बिजली जाने का नहीं बल्कि कब आती है लोग इसका इंतजार करते हैं। बिहार की बिजली व्यवस्था को सुधारकर नीतीश कुमार ने ग्रामीण क्षेत्रों में 14 से 15 घंटे और शहरी क्षेत्रों में 22 से 24 घंटे की आपूर्ति सुनिश्चित की। अपने इन तमान कामों की वजह से नीतीश कुमार की ख्याति मसुशासन बाबूफ वाली हो गई और लोग उन्हें भरोसे का दूसरा नाम कहने लगे। इसी दौर में भाजपा में नरेंद्र मोदी का कद बढ़ रहा था और पार्टी कार्यकर्ता उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे थे। लेकिन नीतीश कुमार को मोदी का बढ़ता कद मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने पहले भाजपा के साथ रहते हुए मोदी से अपनी दूरी बनानी शुरू कर दी और आखिरकार जून 2013 में उन्होंने बाकायदा भाजपा से तब नाता तोड़ लिया जब भाजपा ने तय कर दिया कि नरेंद्र मोदी ही 2014 के लोकसभा चुनावों में उसके नेता होंगे। नीतीश कुमार को यह गलतफहमी हो गई कि उनका कद बिहार में इतना बड़ा हो गया है कि वह 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और राजद-कांग्रेस दोनों को पटखनी देकर बिहार की 40 लोकसभा सीटों में कम से कम 30 सीटें जीतकर केंद्र की राजनीति में अपनी भूमिका निभाएंगे।
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में जनता दल(यू) का बुरी तरह सफाया हुआ और वह राज्य में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सका। इस नतीजे ने नीतीश कुमार को बेहद निराश किया और उन्होंने सियासी दांव चलते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी जीतनराम मांझी को कुर्सी सौंप दी। नीतीश के इस दांव ने उन्हें न सिर्फ उच्च नैतिक धरातल पर स्थापित किया बल्कि एक महादलित को मुख्यमंत्री बनाकर उन्होंने दलितों में भी एक संदेश दिया। इसके साथ ही नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ अपना संवाद शुरू कर दिया जिसकी परिणति 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद जद(यू) कांग्रेस के महागठबंधन के रूप में सामने आई। जिस दौर में देश में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी और भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में जबर्दस्त चुनावी कामयाबी पाकर सरकार बना चुकी थी, उस दौर में नीतीश और लालू ने मिलकर मोदी और भाजपा को चुनौती दी। तमाम प्रचारतंत्र और सर्वेक्षणों को ध्वस्त करते हुए महागठबंधन ने जबर्दस्त सफलता हासिल की और 178 विधायकों के साथ नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बने, जबकि राजद ने जद(यू) से ज्यादा सीटें जीती थीं, फिर भी लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने अपना चुनावी वादा निभाया। बदले में नीतीश ने लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव को अपना उपमुख्यमंत्री बनाया।
इस चुनाव ने बिहार में लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार और कांग्रेस तीनों को ही संजीवनी दे दी। एकबारगी लगा कि नीतीश कुमार ही अब मोदी विरोधी राजनीति की धुरी बनेंगे और 2019 में साझा विपक्ष के नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की सत्ता को चुनौती देंगे। चारा घोटाले में दोषी सिद्ध हो चुके लालू प्रसाद यादव भी अपने बेटे तेजस्वी को बिहार में निष्कंटक रास्ता देने के लिए नीतीश को केंद्र की राजनीति में समर्थन देने के लिए राजी थे। लेकिन जून-जुलाई 2017 में बेहद सुनियोजित तरीके से लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामले खुलने शुरू हो गए और नीतीश कुमार ने भाजपा से अपनी गुप्त खिचड़ी पकाई और महागठबंधन से नाता तोड़कर भाजपा के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री बन गए। इसके बाद कभी नरेंद्र मोदी की चुनौती देने का सपना संजोने वाले नीतीश मोदी के सिपहसालार बन गए और 2019 के लोकसभा चुनावों में वह बिहार में एनडीए के सबसे बड़े खेवनहार साबित हुए।
जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार की जनता ने उन पर पूरा भरोसा किया और भाजपा की झोली भर दी थी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और तमाम भाजपा नेता जिस तरह से नीतीश कुमार के डीएनए से लेकर उनके राज के घोटालों की फेहरिस्त गिना रहे थे, और नीतीश जिस तरह लालू यादव के साथ मिलकर मोदी और भाजपा पर हमले कर रहे थे, अब पांच साल बाद उन्हीं नीतीश का मोदी और भाजपा नेताओं द्वारा गुणगान आम जनता को हजम नहीं हो रहा है। वरिष्ठ पत्रकार रंजनकुमार सिंह कहते हैं कि भले ही एनडीए के नेता बिहार की जनता को 15 साल पहले के लालू राज की याद दिलाकर उसका भयोदोहन करना चाहते हैं, लेकिन जिस बच्चे का जन्म 20 साल पहले हुआ था उसकी स्मृति में लालू राज है ही नहीं इसलिए बिहार के युवा मतदाता को लालू राज का कुछ पता नहीं है, लेकिन उसे पांच साल पहले नीतीश और भाजपा नेताओं ने जो एक दूसरे के बारे में कहा था, वह सब याद है। इसलिए वह कैसे अब इन पर भरोसा करेगा यह एक बड़ा सवाल है। कुल मिलाकर इस बार बिहार विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार और पूरे एनडीए के सामने सबसे बड़ी चुनौती बिहार की जनता का वह विश्वास जीतना है जो 2015 और उसके बाद के सियासी दांवपेचों ने सबस ज्यादा चोट पहुंचाई है।