क्या भारत की सोच को लकवा मार गया है? गुजरे 12 हफ्तों में मुझे सर्वाधिक परेशान किया है। यह बताने की जरूरत नहीं कि हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं,जहां तरह-तरह के संकटों ने हमें घेर रखा है। सीमा पर संसार की दूसरी सबसे बड़ी ताकत, चीन की सेना डटी हुई है। हमारे 21 सूरमा सरहदों की सुरक्षा में शहीद हो चुके हैं। यह गतिरोध कब खत्म होगा और इसकी क्या कीमत चुकानी होगी,कोई नहीं जानता। चीन से ही उपजे एक वायरस ने समूची दुनिया के साथ भारत को चपेट में ले रखा है। हम कोरोना पीड़ितों के मामले में चोटी के देश बन गए हैं। अब तक 75 हजार से अधिक लोग इसकी वजह से जान गंवा चुके हैं। लगभग एक लाख लोग रोज इस जानलेवा वायरस की चपेट में आ रहे हैं। यह महामारी अभी तक लाइलाज है। संसार की समूची व्यवस्था इससे आक्रांत है।
इस महाबला का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना था,पड़ा। हम तो पहले से ही खस्ता हाल थे, कोविड ने जैसे ढलान पर खड़े व्यक्ति को पीछे से लात मार दी हो। हम इतना नीचे लुढ़के,जितना पहले कभी नहीं फिसले थे। नतीजतन,बेरोजगारी दर भयावह स्तर पर जा पहुंची है। ऐसे में,भारतीय समाज को धीरतापूर्वक विचार करना चाहिए था कि हम इन संकटों से कैसे पार पाएं? क्या हम ऐसा कर पाए? कदापि नहीं।
समूचा देश पिछले तीन महीने से सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती में उलझा हुआ है। सुशांत ने अगर आत्महत्या की, तो क्यों? उसकी प्रेयसी रिया चक्रवर्ती इसके लिए कितनी जिम्मेदार थी? सवाल पर सवाल उछल रहे हैं। इस घटना से जुडे़ तमाम कारकों की जांच महाराष्ट्र पुलिस कर रही थी कि बिहार पुलिस ने भी अपनी टीम भेज दी। देखते-देखते मामला बिहार बनाम महाराष्ट्र का बन गया और इसी बीच केंद्र की सरकार ने भी दखल दे दिया। यह शायद अकेला ऐसा मामला है, जिसमें देश की तीन सर्वोच्च जांच संस्थाएं अपने-अपने तरीके से योगदान कर रही हैं।
यह सब चल ही रहा था कि अभिनेत्री कंगना रनौत ने एक तरफ से खुद-ब-खुद कमान संभाल ली। उन्होंने महाराष्ट्र की तुलना पाक अधिकृत कश्मीर से कर डाली। खुद को महाराष्ट्र और मराठी माणूस का अलमबरदार कहने वाली शिवसेना के लिए यह नया मोर्चा खुलने जैसा था। हिमाचल के मुख्यमंत्री ने भी मौका देखकर इस हाई वोल्टेज ड्रामे में एंट्री मारी। उन्होंने हिमाचल की बेटी कंगना की सुरक्षा पर गहरी चिंता जताई। अब कंगना को सीआरपीएफ के लगभग आधा दर्जन जवान घेरकर चलते हैं। अति आत्मविश्वास से लबरेज कंगना इन दिनों शिवसेना की बजाय सीधे उद्धव ठाकरे पर निशाना साध रही हैं। वह गुलाम कश्मीर को पीछे छोड़ बाबर और बाबरी तक जा पहुंची हैं।
यह पहला मौका है, जब किसी फिल्म स्टार ने ठाकरे परिवार को सीधी चुनौती देने की हिम्मत की है। बाल ठाकरे ने इस साम्राज्य को बनाने में अपनी जिंदगी के साढ़े चार दशक से अधिक झोंक दिए थे। अब उनके पुत्र उद्धव पार्टी प्रमुख के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी हैं। वह इससे कैसे निपटेंगे? अतीत में शिव सैनिक मुंबई में हर रोडे़ का जवाब पत्थर से देते आए हैं। दिलीप कुमार से शाहरुख खान तक लंबी लिस्ट है कि जिसके तेवर मातोश्री को पसंद नहीं आए, उसे दुर्दिनों का सामना करना पड़ा। इसके उलट जो इस चौखट पर आया, वह निहाल हो गया। अमिताभ बच्चन बुरे दिनों में वहां गए थे। बाल ठाकरे के कटु आलोचक सुनील दत्त ने भी संजय दत्त के गिरफ्तार होने के बाद यहां दस्तक दी थी। कंगना ने यकीनन शेर के मुंह में हाथ डाला है।
अब राजनीति पर आते हैं। क्या आपको यह अजीब नहीं लगता कि एक नौजवान सिने-स्टार की आसामयिक मृत्यु ने इतने बडे़ विवाद का रूप धारण कर लिया कि उसमें इतनी सारी सरकारें और सियासी दल कूद पडे़? बिहार में विधानसभा चुनाव हैं और बीजेपी ने सुशांत की मौत को चुनावी मुद्दा बनाने की भी ठान ली है। पोस्टर छपे हैं- ना भूले हैं,ना भूलने देंगे। सवाल उठता है, बिहार में मुद्दा अभिनेता की मौत होना चाहिए,या साझा सरकार का काम-काज?
गजब तो यह है कि मामला सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रह गया है। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस समूचे प्रकरण को नई स्पिन दे दी है। वह कहते हैं कि रिया चक्रवर्ती एक बंगाली ब्राह्मण महिला हैं, उनके पिता सेवानिवृत्त सेनाधिकारी। उन्हें भी न्याय मांगने का हक है। वह यह भी कहते हैं कि मुद्दा सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाना है। इसे बिहारी को न्याय दिलाने का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। करणी सेना पहले ही कंगना को राजपूत के नाते समर्थन दे चुकी है। राजपूत कंगना बनाम ब्राह्मण रिया! बॉलीवुड की तो यह रीति नहीं रही है।
क्या बिहार के बाद यह मुद्दा पश्चिम बंगाल के चुनाव को भी प्रभावित करेगा? इससे बड़ी हतभागिता क्या हो सकती है कि हमारे चुनाव जनपरक मुद्दों की बजाय उन आधार स्तंभों पर खडे़ हो रहे हैं,जिन्हें कुछ राजनीतिक शख्सियतों ने गढ़ा है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी कि भारत विभिन्न भाषा-भाषी सोच और संस्कार वाले प्रदेशों का समूह होगा। हमारा संघवाद उदार होगा,जहां केंद्र और राज्यों की सरकारें मिल-जुलकर जनहित के काम करेंगी। कोई कुछ भी कहे,पर मैं आज भी मानता हूं कि देश की प्रज्ञा अभी इतनी कुंठित नहीं हुई है कि वह इस भावना को भुला बैठे। पर इसमें दो राय नहीं कि लोगों को भरमाने के लिए मुद्दों की भूल-भुलैया जरूर तैयार की जा रही है। सुशांत सिंह राजपूत जैसे होनहार के अकाल अवसान से मैं भी आहत हूं, परंतु उनकी इस बदनसीबी से राजनेताओं का नसीब सुधरेगा, यह तीन महीने पहले तक मेरे लिए अकल्पनीय था।
कल से संसद के मानसून सत्र का आगाज हो रहा है। उम्मीद है,प्रश्नकाल रहित इस संक्षिप्त सत्र में टीआरपी पिपासु टीवी स्टूडियो की तरह भटकाऊ और भड़काऊ बहस की जगह वास्तविक मुद्दों पर विचार होगा। बताने की जरूरत नहीं,संसद का काम देश को सही दिशा देना भी है। पता नहीं क्यों, मुझे आंबेडकर का एक कथन याद आ रहा है-संविधान कितना भी अच्छा हो,उसे लागू करने वाले लोग अगर अच्छे नहीं,तो वह बुरा ही सिद्ध होगा। मगर संविधान कितना भी बुरा हो,यदि उसे लागू करने वाले अच्छे हैं,तो वह यकीनन अच्छा साबित होगा।
देश में कई ज्वलंत मुद्दे सीमा पर तनाव,महंगाई,कोरोना महामारी,बेरोजगारी है। देश की मीडिया इस पर से देशवासियों का ध्यान भटका कर केवल सुशांत,रिया,कंगना,महाराष्ट्र सरकार,बिहार सरकार तक केंद्रीय हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो बिहार चुनाव तक टीवी चैनलों को महाराष्ट्र में डटे रहने और बिहार चुनाव तक दिन रात मुद्दे गरमाने का पैकेज मिला हो। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सरकार रिया-कंगना के दो पाटों के बीच पीस रही है। उद्धव ने दबी जुबान में कहा कि महाराष्ट्र को बदनाम करने की साजिश की जा रही है। खामोशी हमारी कमजोरी न समझी जाए। उधर अयोध्या के साधू संत भी इस आग में अपनी अहूति डालने के लिए दो खेमों में बंट गई। एक खेमा ललकार रहा कि अयोध्या में उद्धव ठाकरे को नो एन्ट्री। दूसरा खेमा अयोध्या में कोई पैदा नहीं हुआ जो उद्धव को आने से रोक सके। मीडिया,राजनेता,संत समाज,बॉलिवुड आखिर देश को कहां ले जाना चाहते है? इसका जवाब हर कोई बुद्धिजीवी जानना चाहता है।